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Tuesday, November 12, 2013
एकाकि दूरवर
एकाकि दूरवर निवांतशी वनराई, नि:शब्द शांतता भरली ठाईठाई तरुवरे वेढिला संथ जलाशय हासे, सलिलांत बिंबवित नभ, विहगांचे ठसे मग झुळुक एक अवखळशी गिरकी घेई, अलवार स्पर्श जळअंकी करुनी जाई नाच-या लहरि मग धावत कांठाकडे, शतकंठांचे जणु स्वरावलिस सांकडे....
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